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Friday, February 17, 2012


फूल

बगिया में हजारो फूल खिले, एक फूल चमन से तोर लिया,
फिर फूल व् पत्ते पौधों ने, ऐसा मुझसे मुह मोर लिया,
हम छू न सके न देख सके, बस प्यार से उसको छोर दिया,
फिर फूल हजारो चमक उठे, बस मुझसे नाता तोर लिया!
बगिया में हजारो..........!

एक चाँद हजारो तारे थे, एक मैंने गगन से माँगा था,
जब तारे टिम- टिम चमक रहे, तब जुगनू को ललकारा था,
आया सूरज, देखा मुझको, तारे भी मुझसे छीन लिया,
फिर तारे सरे चमक उठे, बस मुझसे नाता तोर लिया!
बगिया में हजारो..........!

सावन के बरसते बादल से, एक बूंद गिरा मेरे घर में,
बादल ने उसको देख लिया, फिर गरज परा मेरे पर में ,
मैंने तो कहा तुम ले जाओ, फिर बूंद भी मुझसे छीन लिया,
फिर मेघ गगन में चमक उठेबस मुझसे नाता तोर लिया!
बगिया में हजारो..........!

अब एक झलक सबको देखा, न फूल रहा फूलों की तरह,
पत्ते पौधे सब दूर हुए, न बूंद रहा बूंदों की तरह,
बादल ने सबक सब सिख लियागरजों ने उसे झकझोर दिया,
सूरज ने सोचा रात हुई, फिर सबने नाता जोर लिया!

बगिया में हजारो फूल खिले, एक फूल चमन से तोर लिया!!
                                                                                                           .....राघब....

Thursday, February 9, 2012

लकीरें!


लकीरें!

मेरे पिता संस्कृत व्याकरण के अवकाश प्राप्त शिक्षक हैंl एकबार मै गाँव गया, उन्होंने बहुत उत्सुकता से पूछा, बेटा तुम काम क्या करते हो? मैंने कहा - बाबूजी! लकीरें खींचता हूँ , उन्होंने फिर पूछा कैसी लकीरें
[[ मैं समझ नहीं पा रहा था कहाँ से शुरू करूँ  इन लकीरों के बारे में ! कुछ  सीधी लकीरें, कुछ टेढ़ी लकीरें, कुछ गोल लकीरें, या  लकीरों के ऊपर लकीरें
ये लकीरें भी बहुत पेचीदा चीज है, जब सीधा खीचना होता है तो लोग कहते हैं ये तो बहुत आसान है, जल्दी हो जाएगा, सीधी  लकीरों को नापना भी बहुत आसान होता है और खीचना भी! पर सीधी लकीरों से काम  कहाँ चलता है? और आज के समय में कौन चाहता है सीधी लकीरें और सीधा रास्ता?  न कोई रास्ता सीधा है , न कोई नदियाँ! पानी तो हर वक़्त टेढ़ी ही बहती है, फिर सीधे लकीर से कैसे काम चलेगा?
 एक जमाना था जब लोग घर सीधा बनबाते थे, चारो तरफ से घर, घर से लगा हुआ बरामदा  और बीच में आँगन, जिसे लोग बहुत अच्छा मानते थे, पर आज तो आंगन शब्द का जगह बालकोनी ने ले लिया ! और घर भी लोग कुछ अलग चाहते हैं तो फिर सीधी लकीरें  कहाँ खीचूँगा?

कभी भी सीधी लकीरों को लोग देखकर ही छोर देते हैं, सोचते हैं ये तो सामान्य है, यही लकीर अगर टेढ़ी  हो तो लोग उत्सुकता से एकबार जरुर देखते हैं की इसमें कुछ खास होगा, भले ये लकीरें विवशता से खिची गयी हो या फिर आकर्षण का केंद्र बनाने के मकशद से ! इसके तह तक कौन जाना चाहता है? ]]
मैं इसी उधेरबुन में था,उन्होंने फिर पूछा- कैसी लकीरें
जब मेरी तन्द्रा टूटी तो चौंक कर बोला - हाइवे या  रेलवे कैसे बनना है, इसमें पुल कैसा होगा ये लकीरों के द्वारा दर्शाता हूँ!
उन्होंने कहा - बेटा, ध्यान रखना,  यदि लकीरें ही हमारे रास्ते  का भविष्य है, इसे ज्यादा  मत उलझाना !
यदि लोगों को उलझाओगे तो  तुम भी आसानी से नहीं गुजर सकते!  :- राघब

सिर्फ मैं ही अमर हूँ!


सिर्फ मैं ही अमर हूँ!
मानव:-
अस्तित्व है मानव हूँ,
स्वाभिमान है, अमर हूँ!
ज्ञान है बुद्धिजीवी हूँ, 
कब तक छुपे रहेंगे किसी की आड़ में, प्रकाश से डरकर?
क्यूँ भागूं रात में, बड़े सायों को देखकर?
छाया:-
नहीं, मैं कभी भागता कहाँ, 
प्रकाश से डरता कहाँ?
दिन में? हर किसी के साथ कदम से कदम मिलाकर चलता हूँ, पीछे नहीं!
रात में? दृष्टिविहीन तुम हो जाते हो, मुझे देखते नहीं!
मैं  प्रकृति हूँ, साया हूँ, 
अस्तित्व  भी है, स्वाभिमान भी!
ज्ञान भी है, अमरता भी!
बाकपटुता नहीं है, बुद्धिजीवी  नहीं हूँ?
लेकिन सिर्फ मैं ही अमर हूँ!
सिर्फ मैं ही अमर हूँ!!
अस्तित्व विहीन तुम हो, अस्तित्व मानवता का!
तुम्हारा अंत निश्चित है, अमरता स्वाभिमान का!
तुम  बुद्धिजीवी  नहीं, ये तो बाकपटुता है!
ज्ञान तुम्हें कहाँ? ये तो प्रकृति है!
अपने को पहचानो,मेरा क्या है?
मैं? मैं तो साया हूँ!!
मेरा अस्तित्व है, मैं अंतहीन हूँ!
स्वाभिमान मेरा है, मैं ज्ञानी हूँ!
देख, मैं ही छाया हूँ,
मैं बोलता नहीं, यही मेरे अमरता का कारण है!
और मैं ही अमर हूँ,
सिर्फ मैं ही अमर हूँ!!
                             --- राघब